कल कहीं एक बचपन देखा
यूंही गलियों में भटकता था।
आंखे सूनी थी उसकी
किसी की झुठन को तरसता था।
एक बुड़ापा भी देखा
सड़क किनारे बस्ता था।
रुपया, दो रुपया मिल जाए
ठोकरों के जूते साफ करता था।
सुना एक प्यास के बारे में
मीलों पानी के लिए भटकती है।
सुना एक जवानी के बारे में
रोज़गार के लिए तरसती है।
एक घर है कहीं गुमसुम
बम, बारूद से कांपता।
पास ही कोई बेघर भी है
खंडर में आसरा तलाशता।
कोई अपूर्ण शरीर से लड़ रहा।
कोई लूटी आबरू पर मर रहा।
कोई दो पल जीने को जूझ रहा।
कोई दरिद्रता में टूट रहा।
खैर, यह तो ज़िन्दगी है, चलती रहेगी।
तुम बताओ, तुम किस उलझन में उलझे हो?
(C) Jyoti Arora
Image by PDPics from Pixabay |
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